लेखनी कहानी -27-Jan-2023
कुछ देर चुप रहकर जीजी एकाएक बोल उठीं, “इन्द्रनाथ, सोचा था कि आज ही अपनी सब कहानी तुम्हें सुना दूँ। किन्तु सोचकर देखा कि नहीं, अभी वह समय नहीं आया है। परन्तु मेरी एक बात पर अवश्य विश्वास कर लो कि हम लोगों की सारी करामात शुरू से आखिर तक प्रवंचना ही है। इसलिए अब तुम झूठी आशा से शाहजी के पीछे-पीछे चक्कर मत काटो। हम लोग मन्त्र-तन्त्र कुछ नहीं जानते, मुर्दे को भी नहीं जिला सकते; कौड़ी फेंककर साँप को भी पकड़कर नहीं ला सकते। और कोई कर सकता है या नहीं, सो तो मैं नहीं जानती, परन्तु हम लोगों में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं है।”
न मालूम क्यों इस अत्यल्प काल के परिचय से ही मैंने उनके प्रत्येक शब्द पर असंशय विश्वास कर लिया; किन्तु, इतने दिनों के घनिष्ठ परिचय के होते हुए भी इन्द्र विश्वास न कर सका। वह क्रुद्ध होकर बोला, “यदि शक्ति नहीं है तो तुमने साँप को पकड़ किस तरह लिया?”
जीजी बोलीं, “यह तो सिर्फ हाथ का कौशल-भर है इन्द्र, किसी मन्त्र का जोर नहीं। साँप का मन्त्र हम लोग नहीं जानते।”
इन्द्र बोला, “यदि नहीं जानते; तो तुम दोनों ने धूर्तता से मुझसे इतने रुपये क्यों ठग लिये?”
जीजी तत्काल जवाब न दे सकीं; शायद अपने को कुछ सँभालने लगीं। इन्द्र ने फिर कर्कश कण्ठ से कहा, “तुम सब ठग, धूर्त, चोट्टे हो- अच्छा दिखाता हूँ तुम लोगों को इसका मजा।”
पास में ही एक किरासन की डिबिया जल रही थी। मैंने उसी के प्रकाश में देखा, जीजी का मुँह मुर्दे के समान सफेद हो गया है। वे भय और संकोच के साथ बोलीं, “हम लोग मदारी जो हैं भाई- ठगना ही तो हमारा व्यवसाय है।”
“तुम्हरा व्यवसाय मैं अभी सब बाहर निकाले देता हूँ- चल रे श्रीकान्त, इन साले धूर्तों की छाया से भी बचना चाहिए। हरामजादे, बदजात, धूर्त, बदमाश!” यह कहकर इन्द्र सहसा मेरा हाथ पकड़कर और जोर से एक झटका देकर खड़ा हो गया और जरा भी विलम्ब किये बिना मुझे खींच ले गया।
इन्द्र को दोष नहीं दिया जा सकता; क्योंकि उसकी बहुत दिनों की बड़ी-बड़ी आशाएँ, मानो पलक मारते ही, भूमिसात हो गयी थीं। किन्तु मैं अपनी दोनों ऑंखों को जीजी की उन ऑंखों की ओर से फिर न लौटा सका। मैं बलपूर्वक इन्द्र से अपना हाथ छुड़ाकर पाँच रुपये सामने रखते हुए बोला, “तुम्हारे लिए लाया था जीजी-इन्हें ले लो।”
इन्द्र ने झपटकर उन्हें उठा लिया और कहा, “अब और रुपये! धूर्तता से इन्होंने मुझसे कितने रुपये लिये हैं, सो क्या तुझे मालूम है श्रीकान्त? मैं तो अब यही चाहता हूँ कि ये लोग बिना खाए-पिए सूखकर मर जाँय।”
मैंने उसका हाथ दबाकर कहा, “नहीं इन्द्र, दे देने दो- मैं ये जीजी के लिए ही लाया हूँ?”
“ओ:, बड़ी आई तेरी जीजी!” कहकर वह मुझे खींचकर बेंड़े के पास घसीट लाया!
इतने में इस गोल माल से शाहजी का नशा उचट गया। “क्या हुआ! क्या हुआ!” कहते हुए वह उठ बैठा।
इन्द्र मुझे छोड़कर उसकी ओर बढ़ गया और बोला, “डाकू साले! कभी रास्ते में देख पाया तो चाबुक से तेरी पीठ का चमड़ा उधेड़ दूँगा।” “क्या हुआ?”, “बदमाश साला, जानता कुछ भी नहीं, फिर भी कहता फिरता है, मन्त्र के जोर से मुर्दे जिलाता हूँ! यदि कभी रास्ते पर दिखाई दिया तो अबकी बार अच्छी तरह 'देखूँगा तुझे?” इतना कहकर उसने एक ऐसा अशिष्ट इशारा किया जिससे कि शाहजी चौंक उठा।
एक तो नशे की खुमारी फिर अकस्मात् यह अचिन्तय काण्ड। इससे यह 'किंतर्कव्य-विमूढ़' हो गया और उसी भाव से टुकुर-टुकुर देखने लगा।
इन्द्र मुझे लेकर जब तक द्वार के बाहर आया, तब तक शायद वह कुछ होश में आकर शुद्ध बंगाली में पुकार उठा, “सुन इन्द्रनाथ, क्या हुआ है बोल तो?” यह पहले ही पहल मैंने उसे बंगाली में बोलते सुना।
इन्द्र लौटकर बोला, “जन्त्र-मन्त्र तुम कुछ नहीं जानते, फिर क्यों' झूठ मूठ मुझे धोखा देकर इतने दिनों तक रुपया ऐंठते रहे? इसका जवाब दो!”
वह बोला, “नहीं जानता, यह तुमसे किसने कहा?”
इन्द्र ने उसी क्षण उस स्तब्ध नतमुखी जीजी की ओर हाथ बढ़ाकर कहा, “इन्होंने कहा कि तुम्हारे पास कानी कौड़ी की भी विद्या नहीं है। विद्या है सिर्फ धूर्तता की और लोगों को ठगने की। यही तुम लोगों का व्यवसाय है! मिथ्यावादी, चोर!”
शाहजी की ऑंखें भक से जल उठीं। वह कैसी भीषण प्रकृति का आदमी है, इसका परिचय मुझे तब तक भी नहीं था। उसकी केवल उस दृष्टि से ही मेरे शरीर में मानो काँटे उठ आए। वह अपनी बिखरी हुई जटाओं को बाँधते-बाँधते उठ खड़ा हुआ और सामने आकर बोला, “कहा है, तूने?”
जीजी उसी तरह नीचा मुँह किये निरुत्तर बैठी रही। इन्द्र ने मुझे एक धक्का देकर कहा, “रात हो गयी- चल न।” मैंने कहा, “रात अवश्य हो रही है, परन्तु मेरे पैर तो जैसे अपनी जगह से हिलते ही नहीं हैं।” किन्तु इन्द्र ने उस ओर भ्रूक्षेप भी न किया। वह मुझे प्राय: जबर्दस्ती ही खींच ले चला।
कुछ कदम आगे बढ़ते ही शाहजी का कंठ-स्वर फिर सुनाई दिया, “क्यों कहा तूने?”
प्रश्न तो जरूर सुना किन्तु प्रत्युत्तर न सुन सका। थोडे क़दम और अग्रसर होते ही अकस्मात् चारों ओर के उस निबिड़ अन्धकार की छाती को चीरता हुआ एक तीव्र आर्त्त-स्वर पीछे की अंधेरी झोंपड़ी में से हमारे कानों को बेधता हुआ निकल गया; और ऑंख की पलक गिरते-न गिरते इन्द्र उस शब्द का अनुसरण करके अदृश्य हो गया। किन्तु मेरे भाग्य में कुछ और ही था। सामने ही एक बड़ी कँटीली झाड़ी थी। मैं जोर से उसी पर जा गिरा और काँटों से मेरा सारा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। यह जो हुआ, सो हुआ किन्तु अपने को काँटों से छुड़ाने में ही मुझे करीब दस मिनट लग गये। इस काँटे को छुड़ाओ तो किसी अन्य काँटे में कपड़ा बिंध जाता और उसे छुड़ाओ तो किसी तीसरे में जा अटकता। इस प्रकार अनेक कष्ट और विलम्ब के उपरान्त जब मैं शाहजी के घर के ऑंगन के किनारे पहुँचा, तब देखा कि उस ऑंगन के एक हिस्से में जीजी मूर्च्छित पड़ी हुई हैं और दूसरे हिस्से में दोनों का- गुरु-शिष्य का बाकायदा मल्ल-युद्ध हो रहा है। पास ही में एक तेजधार वाली बर्छी पड़ी हुई है।
शाहजी-शरीर से अत्यन्त बलवान था, किन्तु उसे पता न था कि इन्द्र उससे भी कितना अधिक बली है। यदि होता तो शायद वह इतने बड़े दु:साहस का परिचय न देता। देखते ही देखते इन्द्र उसे चित्त करके उसकी छाती पर चढ़ बैठा और उसकी गर्दन को जोर से दबोचने लगा। वह ऐसा दबोचना था कि यदि मैं बाधा न देता तो, शायद, शाहजी का मदारी-जीवन उसी समय समाप्त हो जाता।